Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है










होम / करेंट अफेयर्स

आपराधिक कानून

डिफॉल्ट जमानत का अधिकार

    «    »
 18-Sep-2023

संजय कुमार पुंडीर बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार

"ऐसी स्थिति में किसी अभियुक्त को डिफॉल्ट जमानत पर रिहा होने का अधिकार है, जिसमें अभियोजन वैधानिक अवधि के भीतर प्रारंभिक या अपूर्ण आरोप पत्र दाखिल करता है।"

न्यायमूर्ति अमित शर्मा

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

संजय कुमार पुंडीर बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना है कि "ऐसी स्थिति में किसी अभियुक्त को डिफॉल्ट जमानत पर रिहा होने का अधिकार है, जिसमें अभियोजन वैधानिक अवधि के भीतर प्रारंभिक या अपूर्ण आरोप पत्र दाखिल करता है।"

पृष्ठभूमि

  • इस मामले में, वर्ष 2021 में भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के तहत अपराध के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
  • और सितंबर 2021 में आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया।
  • जाँच पूरी होने पर वर्ष 2021 में ही आरोप पत्र दाखिल किया गया।
  • इसके बाद वर्ष 2022 में, दो पूरक आरोपपत्र दाखिल किये गए।
  • सत्र न्यायालय के समक्ष, आरोपी ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973 (CrPC) की की धारा 167 के तहत डिफॉल्ट जमानत की मांग करते हुए, एक आवेदन दायर किया।
  • सत्र न्यायालय ने आरोपी की अर्जी खारिज कर दी।
  • इसके बाद, दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष डिफॉल्ट जमानत के लिये याचिका दायर की गई जिसे बाद में न्यायालय ने खारिज कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति अमित शर्मा ने कहा कि "ऐसी स्थिति में किसी अभियुक्त को वर्ष जमानत पर रिहा होने का अधिकार है, जिसमें अभियोजन वैधानिक अवधि के भीतर प्रारंभिक या अपूर्ण आरोप पत्र दाखिल करता है।"
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973 (CrPC) की धारा 167(2) के तहत, ऐसी स्थिति में किसी भी आरोपी को डिफॉल्ट जमानत पाने का अधिकार होगा, जिसमें निर्धारित अवधि के भीतर आरोप पत्र दाखिल नहीं किया जाता है।
    • न्यायालय ने माना कि डिफॉल्ट जमानत के अधिकार को जन्म देने वाली दूसरी परिस्थिति वह होगी जिसमें अभियोजन पक्ष अपराधों के लिये निर्धारित अवधि के भीतर प्रारंभिक या अपूर्ण आरोप पत्र दाखिल करता है और उस प्रक्रिया में आरोपी के वैधानिक जमानत के अधिकार को खत्म करता है।

कानूनी प्रावधान

दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 167

  • यह धारा उस प्रक्रिया से संबंधित है जब कोई अन्वेषण चौबीस घंटे में पूरा नहीं किया जा सकता है। यह धारा कहती है कि –

(1) जब कभी कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया गया है और अभिरक्षा में निरुद्ध है और यह प्रतीत हो कि अन्वेषण धारा 57 द्वारा नियत चौबीस घंटे की अवधि के अंदर पूरा नहीं किया जा सकता और यह विश्वास करने के लिये आधार है कि अभियोग दृढ़ आधार पर है तब पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या यदि अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी उपनिरीक्षक से निम्नतर पंक्ति का नहीं है, तो वह, निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को इसमें इसके पश्चात् विहित डायरी की मामले में संबंधित प्रविष्टियों की एक प्रतिलिपि भेजेगा और साथ ही अभियुक्त व्यक्ति को भी उस मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा।

(2) वह मजिस्ट्रेट, जिसके पास अभियुक्त व्यक्ति इस धारा के अधीन भेजा जाता है, चाहे उस मामले के विचारण की उसे अधिकारिता हो या न हो, अभियुक्त का ऐसी अभिरक्षा में, जैसी वह मजिस्ट्रेट ठीक समझे इतनी अवधि के लिये, जो कुल मिलाकर पंद्रह दिन से अधिक न होगी, निरुद्ध किया जाना समय-समय पर प्राधिकृत कर सकता है तथा यदि उसे मामले के विचारण की या विचारण के लिये सुपुर्द करने की अधिकारिता नहीं है और अधिक निरुद्ध रखना उसके विचार में अनावश्यक है तो वह अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास, जिसे ऐसी अधिकारिता है, भिजवाने के लिये आदेश दे सकता है :

परंतु-

(क) मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का पुलिस अभिरक्षा से अन्यथा निरोध पंद्रह दिन की अवधि से आगे के लिये उस दशा में प्राधिकृत कर सकता है जिसमें उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करने के लिये पर्याप्त आधार है।

(i) कुल मिलाकर नब्बे दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ अन्वेषण ऐसे अपराध के संबंध में है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या दस वर्ष से कम की अवधि के लिये कारावास से दंडनीय है;

(ii) कुल मिलाकर साठ दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ अन्वेषण किसी अन्य अपराध के संबंध में है और, यथास्थिति, नब्बे दिन या साठ दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर यदि अभियुक्त व्यक्ति जमानत देने के लिये तैयार है और दे देता है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा और यह समझा जाएगा कि इस उपधारा के अधीन जमानत पर छोड़ा गया प्रत्येक व्यक्ति अध्याय 33 के प्रयोजनों के लिये उस अध्याय के उपबंधों के अधीन छोड़ा गया है:

(ख) कोई मजिस्ट्रेट इस धारा के अधीन किसी अभियुक्त का पुलिस अभिरक्षा में निरोध तब तक प्राधिकृत नहीं करेगा जब तक कि अभियुक्त उसके समक्ष पहली बार और तत्पश्चात् हर बार, जब तक अभियुक्त पुलिस की अभिरक्षा में रहता है, व्यक्तिगत रूप से पेश नहीं किया जाता है किंतु मजिस्ट्रेट अभियुक्त के या तो व्यक्तिगत रूप से या इलैक्ट्रानिक दृश्य संपर्क के माध्यम से पेश किये जाने पर न्यायिक अभिरक्षा में निरोध को और बढ़ा सकेगा।

(ग) कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, जो उच्च न्यायालय द्वारा इस निमित्त विशेषतया सशक्त नहीं किया गया है. पुलिस की अभिरक्षा में निरोध प्राधिकृत नहीं करेगा।

  • यह धारा (167), रिमांड पर कानून बनाते समय जाँच पूरी होने में अत्यधिक देरी के दौरान आरोपी को हिरासत से सुरक्षा भी प्रदान करती है।
  • यह धारा प्रावधान करती है कि, जहाँ जाँच 60 या 90 दिनों की निर्धारित अवधि के भीतर पूरी नहीं होती है, जैसा भी मामला हो, उसके बाद आरोपी उक्त अवधि की समाप्ति पर डिफॉल्ट जमानत के अपने अधिकार का लाभ उठा सकता है।
  • दूसरे शब्दों में, जहाँ जाँच एजेंसी ने जाँच के 60 दिनों (मौत या 10 साल से कम की कैद की सज़ा वाले अपराधों के मामले में 90 दिन) की अवधि के भीतर आरोप पत्र दाखिल नहीं किया है, तो आरोपी जमानत पर रिहा होने का हकदार हो जाता है।
  • इस प्रकार, जहाँ निर्धारित अवधि के भीतर कोई आरोप पत्र दायर नहीं किया गया है, ऐसी अवधि की समाप्ति पर आरोपी को हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।
  • केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, विशेष अन्वेषण प्रकोष्ठ - I, नई दिल्ली बनाम अनुपम जे. कुलकर्णी (1992) मामले में, यह माना गया कि धारा 167(2) के तहत मजिस्ट्रेट आरोपी को ऐसी हिरासत में रखने का अधिकार दे सकता है, जैसा वह उचित समझे। लेकिन यह कुल मिलाकर पंद्रह दिन से अधिक नहीं होनी चाहिये ।

आरोप पत्र  (Chargesheet)

  • के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ (1991) मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि, आरोप पत्र दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 173(2) के तहत पुलिस अधिकारी की अंतिम रिपोर्ट होती है।
  • आरोप पत्र में पक्षों के नाम, जानकारी की प्रकृति और अपराधों का विवरण शामिल होना चाहिये ।
  • सभी दस्तावेजों से परिपूर्ण आरोप पत्र, अभियोजन मामले और तय किये जाने वाले आरोपों का आधार बनता है।
  • इसे 60-90 दिनों की निर्धारित अवधि के भीतर दाखिल किया जाना चाहिये।